RVSP movie द्वारा, रॉनी स्क्रूवाला और मेघना गुलजार रचित फिल्म सेम बहादुर (Sam Bahadur Movie) का हाल ही में टीजर रिलीज हुआ है। इस फिल्म की मुख्य भूमिका में विकी कौशल (Vicky Kaushal Sam Maneshaw) नजर आएंगे, जो सैम मानेकशॉ की भूमिका निभाएंगे। यह फिल्म प्रसिद्ध और बहादुर फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ (Field marshal Sam Maneshaw) के जीवन पर आधारित है। जिसके बहुत सारे किस्से हैं और यही किस्से के बारे में आज हम इस लेख के द्वारा जानने की कोशिश करेगे।

बचपन और किशोरावस्था के किस्से (Sam Manekshaw history)
सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम सायरस (Cyrus) था। लेकिन उस समय इस नाम का एक आदमी एक जुर्म में पकड़ा गया था। इसलिए उसका नाम बदलकर सैम रखा गया। यह नाम उनकी दादी ने रखा था।
सैम के पिताजी होर्मुसजी मानेकशॉ अपने जमाने के जाने-माने डॉक्टर थे। पहले विश्व युद्ध में उनके पिताजी की बहुत अच्छी भूमिका रही। इसके लिए उसे सम्मानित भी किया गया।
होर्मुसजी मानेकशॉ के कुल 6 बच्चे थे। उनमें से 5 वें सैम थे। वह बचपन से ही बहुत शैतान थे। उनके स्कूल के सहपाठी बताते थे कि वह बहुत शरारत करते थे। उनके परिवार में बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने का पहले से ही रिवाज था। इसलिए सैम की पढ़ाई (Sam Maneshaw education) शेरवुड कॉलेज जो नैनीताल में स्थित है वहां पर हुई। यहां पर अमिताभ बच्चन भी पढे है। यह बहुत प्रख्यात स्कूल है।
सैम मानेकशॉ मिलिट्री में कैसे आए यह भी एक रसप्रद किस्सा है। सैम को पहले से ही डॉक्टर बनने का सपना था। इसके लिए जब वह 15 साल के थे तब उसके पिताजी से कहा कि, “मुझे डॉक्टर बनना है। इसके लिए मुझे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में लंदन जाना है।” तब उनके पिताजी ने कहा कि, “ठीक है, मैं तुम्हें लंदन जरूर भेजूंगा। लेकिन पहले तुम स्कूल में अच्छे मार्क्स लाओ और अच्छे से पढ़ाई करो।” यह सुनकर सैम बहुत खुश हो गए। वह पहले से ही होशियार तो थे ही और अब उसने और ज्यादा मेहनत करना शुरू कर दिया।
उसने शेरवुड कॉलेज में सबसे अच्छे मार्क्स लाकर दिखाएं और पिताजी से जाकर बोले, “यह देखो पिताजी! मैंने अच्छे से मार्क्स लाए। अब आप मुझे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में भेजो, मुझे लंदन जाकर पढ़ाई करनी है।” तब उनके पिताजी ने कहा, “तुम अभी बहुत छोटे हो। अभी तो तुम 15 साल के हो। थोड़ा समय रुको, जब तुम 18 साल के हो जाओगे तब मैं तुम्हें लंदन जरूर भेजूंगा। यह सुनकर उनका मूड ही खराब हो गया। वह उनके पिताजी से नाराज हो गए और उनसे 18 महीने तक बात नहीं की। और इसी गुस्से मैं वह दिल्ली चले गए। क्योंकि वहां पर एक नोटिफिकेशन जारी हुआ था कि सरकार द्वारा इंडियन मिलिट्री एकेडमी शुरू होने वाली है और भारतीय फौज बनाना शुरू करेंगे। तो यहां पर सैम गुस्से में आ गए कि अब मैं मिलिट्री में जाऊंगा और अब मुझे डॉक्टर बनना ही नहीं है। इसी तरह हमे आर्मी ऑफिसर के रूप में हीरो मिल गया।
कहते हैं ना कि, “जब मन की हो तो अच्छा और जब मन की ना हो तो और भी अच्छा।” कभी-कभी लगता है कि जो हो रहा है वो अच्छा नहीं हो रहा। लेकिन भगवान ने हमारे लिए क्या सोचा है वह हम कह नहीं सकते। कभी-कभी जो भी होता है अच्छा ही होता है। अगर सैम मानेकशॉ डॉक्टर बन गए होते तो हम उनकी बायोग्राफी शायद ना पढ़ रहे होते। लेकिन उन्होंने मिलिट्री जोइन की और इतिहास में नाम कमा लिया।
आर्मी में गोल्डन पीरियड (Sam Manekshaw in Army)
जब वह एकबार मिलिट्री में भर्ती हो गए, तब उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह इंटेलिजेंट बहुत थे। एंट्रेंस एग्जाम में उनकी 6ठी रैंक थी। ओपन कॉन्पिटिशन के जरिए 15 केडेट को सिलेक्ट किया गया था उनमें सैम पहले थे। इस तरह उनका आर्मी में गोल्डन कैरियर 1932 से ही शुरू हो गया।
आर्मी की सबसे पहली बेच के वह हिस्सा थे। वह पहले ग्रेजुएट थे जिन्होंने गोरखा रेजीमेंट ज्वाइन की। गोरखा रेजीमेंट अपनी बहादुरी के लिए पहचाने जाते हैं। एक बार सैम मानेकशॉ ने कहा था कि, “अगर कोई कहता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वह गोरखा है।”
चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ को सेवा प्रदान करने वाले वे सबसे पहले ऑफिसर थे और भारत के सबसे पहले फील्ड मार्शल भी बने।
जबसे आर्मी में शामिल हुई है तब से उनके बेहतरीन कामो की वजह से उन्हें प्रमोशन मिलता गया। 1 मई 1938 में उनको क्वाटर मास्टर ऑफ द कंपनी बना दिया गया।
वर्ल्ड वॉर-2 के किस्से (Sam Maneshaw in World War 2)
1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया। उस समय कोई क्वालीफाईड ऑफीसर ही नहीं था। दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी ने पूरे यूरोप को जीत लिया था। सिर्फ इंग्लैंड ही टूटा-फूटा खड़ा था। उसका भी काम तमाम होने ही वाला था, तब इंग्लैंड ने भारत से मदद मांगी। तब गांधीजी ने मदद देने से मना कर दिया। क्योंकि वह पहले भी इंग्लैंड की तरफ से धोखा खा चुके थे। लेकिन भारत की आर्मी इंग्लैंड की ही थी। गुलाम होने के कारण सैम मानेकशॉ को आगे किया जाता है।
ऐसे समय में बर्मा से भारतीय फौज जापान के खिलाफ लड़ रही थी। जिसमें मानेकशॉ का बहुत ही बड़ा योगदान था। उसने बहुत ही बहादुरी से लड़ाई की थी। वहां पर जो एक पुल था उसको सफलतापूर्वक मानेकशॉ ने बचा लिया था। लेकिन इस दौरान एक जापानी सिपाही ने उनके पेट में बंदूक घुसेड़ दी और गोलियां चला दी। मानेकशॉ को 7 गोलियां लगी और बुरी तरह से घायल हो गए। उनके बचने की उम्मीदें बहुत कम थी। यह देखकर वहां पर जो कमांडिंग ऑफिसर डेविड कोवन (David Cowan) थे, उसने अपना मिलिट्री क्रॉस निकालकर मानेकशॉ पर लगा दिया। क्योंकि मानेकशॉ अगर मर जाते तो, मृत ऑफीसर को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता। इसीलिए सैम की बहादुरी देखकर उसे डेविड ने मिलिट्री क्रॉस लगा दिया।
उसके बाद सैम को मिलिट्री अस्पताल ले जाया गया। वहां पर सब ने उनका इलाज करने से मना कर दिया क्योंकि वह बहुत ही घायल हो चुके थे। उनके बचने की उम्मीदें बहुत ही कम थी। लेकिन इलाज के लिए जोर देने पर उनका इलाज हुआ। उस समय वह अस्पताल में एक ऑस्ट्रेलियन सर्जन था। उसने सैम से पूछा कि, “क्या हो गया तुम्हें दोस्त?” तब सैम ने कहा कि, “कुछ नहीं, एक गधे ने पेट में लात मार दी।” यह सुनकर वह डॉक्टर बहुत जोर से हंसने लगा और कहा कि ऐसे नाजुक समय पर भी तुम्हारा सेंस ऑफ ह्यूमर अच्छा है। तुम्हें तो बचाना ही पड़ेगा।
फिर वह डॉक्टर ने सैम का ऑपरेशन किया और फेफड़े, लिवर, किडनी और पेट से 7 गोलियां निकाली। सैम मानेकशॉ जिंदा बच गए। ऐसी गंभीर परिस्थिति में भी वह मजाकिया स्वभाव में रहते थे। इसी वर्तन के जरिए वह बताते हैं कि एक लीडर को कैसा होना चाहिए? लीडर को अपने स्वभाव से परिस्थिति बदलनी आनी चाहिए, लोगों को संभालना आना चाहिए और उनके पास सेन्स ऑफ ह्युमर अच्छा होना चाहिए।
इसके बाद उनको लेफ्टिनेंट कर्नल बनाया गया। जापानी सैनिकों को बंदी बनाया गया। उस समय 60000 जापानी सैनिकों की बहुत अच्छे से देखभाल की। उसके साथ कभी भी बुरा बर्ताव नहीं किया। इस वजह से आर्मी भी खुश हो गई। फिर उसे प्रमोट करके 1947 में लेफ्टिनेंट कर्नल बना दिया गया और बाद में उसे 6 महीनों के लिए ऑस्ट्रेलिया में लेक्चर टूर के लिए भी भेजा गया।
भारत पाकिस्तान के बंटवारे के किस्से (Sam Manekshaw in India Pakistan War)
1947 में भारत का बंटवारा हो गया और दो देश भारत और पाकिस्तान बन गए। उस समय बहुत सारे लोगों को यह विकल्प मिला था कि जो पाकिस्तान जाना चाहता है वह जा सकता है। सैम मानेकशॉ को भी यह विकल्प मिला था। लेकिन उन्होंने पाकिस्तान जाने से मना कर दिया और भारत के लिए ही अपनी सेवाएं प्रदान की।
इस बंटवारे के समय भी उनके बहुत सारे किस्से है। जब भारत 1971 का युद्ध जीता था तब उस समय याहया खान पाकिस्तान के प्रेसिडेंट थे। सैम और याहया खान बंटवारे से पहले अच्छे दोस्त थे। उस समय सैम के पास लाल कलर की जेम्स मोटरसाइकल थी, जो याहया खान को बहुत ही पसंद थी। उन्होंने सैम को कहा, “तुम मुझे 1000 रुपये में यह मोटरसाइकल दे दो।” सैम मान भी गए और उसे बाइक दे दी। फिर बटवारा हो गया और याहया खान को 1000 रुपये सैम को देना बाकी रह गया। फिर 1971 भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद शिमला समझोता हुआ। वहां पर सेम और याहया खान दोनों मिले। तब सैम मानेकशॉ ने कहा कि, “याहया खान ने मुझे मोटरसाइकल के 1000 रुपये अभी तक नहीं दिए। लेकिन बदले में आधा मुल्क दे दिया।
1947 के बंटवारे के बाद मानेकशॉ भारत में ही रहे और भारत को उनकी जरुरत भी थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तानी ट्राइबल लोग कश्मीर पर आक्रमण करके उसे हथ्या रहे थे। हैदराबाद में भी समस्या थी और भारत को एक भी करना था। ऐसे समय में मानेकशॉ ने कश्मीर में बहुत अच्छा काम किया। मानेकशॉ और सरदार वल्लभ पटेल बहुत करीब थे और दोनों के बीच बहुत अच्छी जमती भी थी। जब पाकिस्तानी ट्राइबल ने काश्मीर में लुट मचाई तब भी नेहरु आर्मी को कश्मीर में नहीं भेजना चाहते थे।
तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुस्से में बोला, “आपको कश्मीर चाहिए कि नहीं चाहिए?” तब नेहरु जी ने बोला, “बिल्कुल चाहिए।” उसके बाद से मानेकशॉ अपनी पूरी आर्मी लेकर कश्मीर गए। जैसे ही महाराणा हरिसिंह ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ ऐसेसन पर हस्ताक्षर किए, मानेकशॉ की आर्मी ने इन ट्रायबल लोगो को खदेड़ दिया। कूछ हिस्से जहां पर इन पाकिस्तानी ट्रायबल ने कब्जा कर लिया वह हिस्से के अलावा बाकी सब जगह पर आर्मी ने बहुत अच्छा काम किया और लोगों को भगा दिया। इसी तरह कश्मीर को भारत में मिलाने में मानेकशॉ का भी बहुत अच्छा योगदान रहा। इस कार्य के लिए उन्हें प्रमोशन भी मिले। बहुत छोटे सी उम्र में ही उन्हें बहुत सारे प्रमोशन मिलते जा रहे थे। उस समय वे करीबन 35 साल के ही थे।
सैम मानेकशॉ के खिलाफ षड्यंत्र और भारत चीन युद्ध (Conspiracy against Sam Manekshaw)
मानेकशॉ को उनके काम और बहादुरी की वजह से बहुत सारी उपलब्धियां हासिल हुई। उन्होंने बहुत सारे नए नए मुकाम बनाए। लेकिन दोस्तों! हर वक्त चीजें एक जैसी नहीं रहती। मानेकशॉ बहुत अच्छे स्वभाव के थे। उनका स्वभाव मजाकिया भी था और साथ में उनको जो बोलना था वह खुले मन से निडर होकर बोल देते थे। उनके आगे किसी की नहीं चलती थी और उनका बढ़ता कद, इन सबकी वजह से वह बहुत सारे लोगों की नजर में खटकने लगे। अब मानेकशॉ बहुत से नेता एवं ब्यूरोक्रेट्स की नजर में आ चुके थे और उनके खिलाफ साजिशे रचना शुरु हो गई।
उस समय डिफेंस मिनिस्टर मेनन द्वारा ब्रिज मोहन कॉल को लेफ्टिनेंट जनरल का पद देकर क्वार्टर मास्टर जनरल बना दिया गया। उसके बाद 1962 में थिमाया कि ना सुनते हुए उसे चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बनाया गया। उनको बहुत बड़ी पोस्ट दे दी गई और उन्हें आर्मी का हेड बनाया गया।
अब उसने मानेकशॉ के खिलाफ जासूस छोड दिए और साजीशे रचना शुरू कर दिया। इसकी वजह से पॉलिटिशन और ब्यूरोक्रेट्स के द्वारा मानेकशॉ पर जांच (inquiry) बिठा दी गई और झूठे इल्जाम लगे कि वह “more British than Indian” है। मतलब कि उनका काम करने का तरीका वैसा है जैसा अंग्रेज काम करते थे। वह प्रोफेशनल नहीं है, उनका बात करने का तरीका ठीक नहीं है। ऐसे बिना हाथ-पैर वाले जुठे इल्जाम उन पर लगाए गए और उसमें उन्हें उल्जाये रखा। हर किसी को पता था यह इल्जाम झूठे हैं। मानेकशॉ को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनको पता था कि उनको जो काम करना है वह करना ही है। यह सब चीजें चलती रहेगी। लेकिन इसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा।
जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत चीन के बीच युद्ध हुआ तब सैम मानेकशॉ (Sam Manekshaw in Indo China War) इस युद्ध में नहीं थे। क्योंकि उन पर झूठे इल्जाम की वजह से उन पर कोर्ट की कार्यवाही चल रही थी। युद्ध में भारत की बहुत खराब हालत थी। अब सबको पता चल गया था कि मानेकशॉ की बहुत ज्यादा जरूरत है। अगर उनको नहीं बुलाया गया तो बहुत बड़ी समस्या हो सकती है।
इसलिए उन पर जो भी सारे चार्जिस और इल्जाम थे वह हटा दिये गये और उनको युद्ध में बुलाया गया। आते ही उन्होंने सब कुछ संभाला और पूछा कि हमारी आर्मी कहां तक पहुंची है, हमारे पास कितनी सप्लाई है। उनके आते ही आर्मी में नया जोश आ गया था। लेकिन दोस्तों! जब तक वह कुछ करते तब तक बहुत देर हो गई थी। भारत-चीन के युद्ध विराम की घोषणा हो चुकी थी और चीन हमारा बहुत सारा प्रदेश ले गया था। भारत की आर्मी को पराजय झेलना पड़ा और इसकी वजह से ब्रिज मोहन सिंह कॉल और मेनन को बर्खास्त किया गया और मानेकशॉ को लेफ्टिनेंट जनरल बनाया गया।
इसके बाद 1965 में भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ। वह युद्ध भारत जीत गया। जिसमें मानेकशॉ की भी बहुत अच्छी भूमिका रही। 1962 के युद्ध के बाद तुरंत चार्ज संभालते हुए मानेकशॉ यह नतीजे पर आए हैं की, 1962 का युद्ध भारत खराब नेतृत्व की वजह से ही हारा है।
भारत पाकिस्तान युद्ध 1971
1971 में जब भारत पाकिस्तान के युद्ध में भारत को जीत मिली थी उन्हें मानेकशॉ का बहुमूल्य योगदान था। 1970 में पहली बार पाकिस्तान में जनरल इलेक्शन हुए। उसमें शेख मुजीबुर रहमान की पार्टी अवामी लीग जीत गई, जो इस्ट पाकिस्तान से लड़ी थी। यह बात वेस्ट पाकिस्तान को पसंद नहीं आई। इसलिए वेस्ट पाकिस्तान ने ईस्ट पाकिस्तान में आर्मी भेजी और वहां के लोगों को क्रूर तरीके से मारना शुरू किया। बलात्कार को एक हथियार की तरह उपयोग किया। वह सैनीक छोटे-छोटे बच्चों को भी नहीं छोड़ते थे। इसकी वजह से इस्ट पाकिस्तान से बहुत सारे लोग भागकर भारत के बंगाल और असम में आने लगे। अब भारत के लिए मुसीबत खड़ी हो गई।
हमारे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी मीटिंग बुलाई। सैम मानेकशॉ को बुलाया गया और उसे कहा कि तुम अभी के अभी अपनी सेना लेकर जाओ और इस्ट पाकिस्तान पर हमला कर दो। तब सैम मानेकशॉ ने कहा कि अगर हम अभी युद्ध करेंगे तो मैं 100% गारंटी देता हूं कि हम यह युद्ध हार जाएंगे। तब वहां बैठे सब मिनिस्टर ने युद्ध के लिए कहा। जगजीवन राम ने तो यह बोल दिया था कि, “कर दीजिए ना युद्ध। क्या दिक्कत है?” तब मानेकशॉ ने कहा कि, “क्या कर दीजिए युद्ध! कोई मजाक है युद्ध! ठीक है मैं युद्ध कर दूंगा, लेकिन मेरी आर्मी भारत के कोने-कोने में है। सबको इकट्ठा करना पड़ेगा। सारी की सारी रेलवे अभी के अभी रोकिए। वह सिर्फ आर्मी उपयोग करेंगी। जितने भी रोड है वह सिर्फ आर्मी उपयोग में लेंगे। सारी सप्लाई हमें चाहिए, हमें हथियार इकठ्ठे करने है। यह करने में तीन-चार महीने लगेगा। सैम मानेकशॉ कहना चाहते थे कि सब कुछ आर्मी के हाथ में होगा। इससे जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाएगा। अगर आप इसके लिए तैयार है तो हम युद्ध करेंगे।
तब इंदिरा गांधी ने सोचा और कहा कि, हम अभी युद्ध क्यों नहीं कर सकते? तब मानेकशॉ ने कहा कि पहली बात यह कि चीन हम पर हमला कर सकता है। अगर ऐसा होता है तो हमें दो मोर्चे पर रहना पड़ेगा। दूसरी बात यह की मार्च की सीजन है, इसलिए बारिश का सीजन आनेवाला है। ऐसे में इस्ट पाकिस्तान में इतनी बारिश होती है कि जमीन भी नहीं दिखती इतना पानी होता है। ऐसे में युद्ध करना नामुमकिन हो जाता है। इस स्थिति में हम अभी युद्ध करेंगे तो हमारे हारने की संभावना ज्यादा है।
यह सुनते ही इंदिरा गांधी ने मीटिंग रद्द कर दी और मानेकशॉ को रुकने को लिए बोला। तब मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी से कहा की आप कुछ भी बोले उससे पहले मैं इस्तीफा देने के लिए तैयार हूं। तब इंदिरा गांधी ने कहा, “पहले सुनो तो सही! तुम्हें कितना वक्त चाहिए?” मानेकशॉ ने कहा कि, “मुझे आर्मी इकट्ठे करने में कुछ समय चाहिए। आप कुछ वक्त देते हो तो मैं आपको गारंटी देता हूं कि हम यह युद्ध जीत जाएंगे।” यह सुनकर इंदिरा गांधी मान गई और इस युद्ध में मानेकशॉ ने जबरदस्त काम करके दिखाया। यह युद्ध 13 दिनों में ही खत्म हो गया और भारत जीत गया था। 16 सितंबर 1971 को पाकिस्तान की पूरी आर्मी ने सरेंडर कर दिया था। इस युद्ध में आर्मी, नेवी और एयरफोर्स तीनों का कमाल का कोआर्डिनेशन था। पाकिस्तान की बुरी तरह से हार हुई और 93000 पाकिस्तानी सैनिकों ने सरेंडर कर दिया था।
जब पाकिस्तानी सैनिकों ने सरेंडर कर दिया तब यह भी बड़ी समस्या थी कि इतने सारे सैनिकों को भारत मैनेज कैसे करेगा। लेकिन मानेकशॉ ने इस समस्या को भी बहुत ही अच्छी तरह से मैनेज किया। वह बहुत ही ह्यूमन और काईंड़ इंसान थे। इतने सारे सैनिकों का खाने का और रहने का बंदोबस्त करना कोई आसान काम नहीं है। मानेकशॉ ने सभी बंधक सैनिकों को अच्छी तरह से रखा। भारतीय आर्मी बाहर सोती थी लेकिन पाकिस्तानी सैनिकों को अंदर मकान में सुलाया। भारतीय सैनिक जमीन पर सोते थे, परंतु पाकिस्तानी सैनिकों को गद्दी पर सुलाया। बहुत सारे लोगों को यह बात पसंद नहीं आई। तब भी मानेकशॉ में कहा कि, वह बंदक सैनिक है तो क्या हुआ! वह अपने देश के लिए लड़ रहे थे, जैसे हमारे सैनिक हमारे देश के लड़ते थे। अगर वह युद्ध में हार गए इसका मतलब यह नहीं कि उसके साथ किसी भी तरह का क्रुर व्यवहार किया जाए।
सैम मानेकशॉ के इस अच्छे व्यवहार का पाकिस्तानी आर्मी पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। बाद में जब वह पाकिस्तान गए थे तब वहां के जनरल ने बहुत अच्छे से उनका स्वागत किया। जब पाकिस्तान के गवर्नर के साथ उनका डिनर था तब गवर्नर ने कहा कि कुछ पाकिस्तानी सैनिक आपसे मिलना चाहते हैं। आप बाहर जाइए। जब मानेकशॉ बाहर गए, तब वहां पर 40-50 पाकिस्तानी सैनिकों ने अपनी पगड़ी उतारकर मानेकशॉ के फेर में रख दी। मानेकशॉ ने कहा, “आपने ऐसा क्यों किया?” तब सैनिकों ने कहा, “आपने जिस तरह हमारे पाकिस्तानी भाइयों को संभाला था, उसके लिए पगड़ी उतारकर आपके पैर में रखना यह भी कम है।” यह सुनकर मानेकशॉ को बहुत खुशी हुई थी।
1971 युद्ध की जीत के बाद उनको फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई और इस तरह वह भारत के पहले फील्ड मार्शल (First field marshal of India) बने। जनरल से भी ऊपर की पोस्ट फील्ड मार्शल की होती है। इस समय उन्हें पद्म विभूषण भी मिला।
रिटायर होने के बाद मानेकशॉ को सैलरी और भत्ते नहीं दिए गए
उनका कैरियर और सर्विस बहुत अच्छी तरह से चल रहा था। इसी बीच उन्होंने एक विवादास्पद बात कह दी। दरअसल हुआ यूं था कि एक पत्रकार ने पूछ लिया था कि, “अगर आप बंटवारे के समय पाकिस्तान चले जाते तो क्या होता?” इसी सवाल पर मानेकशॉ ने हंसते-हंसते कह दिया कि, “क्या होता! 1971 का युद्ध पाकिस्तान जीत जाता।” मानेकशॉ ने बस यूं ही मजाकिया स्वभाव में यह बात कर दी थी। लेकिन लोगों ने और कुछ पॉलिटिशियन को इस बात को हल्ला बनाने का मौका मिल गया। क्योंकि वैसे भी वह सब मानेकशॉ से गुस्सा थे, क्योंकि मानेकशॉ हमेशा मजाकिया स्वभाव में रहते थे और उनको जो बात कहनी होती थी वह बात निडर होकर कह देते थे। उनको किसी का भी डर नहीं था।
एक दिन इंदिरा गांधी ने मानेकशॉ को बुलाया। मानेकशॉ चाय पी रहे थे और उसने बोला, “अरे चाय पी रहा हूं। अभी कैसे घर पर आ जाऊ!”
इंदिरा गांधी ने बोला, “अभी आओ”
मानेकशॉ बोले, “अरे चाय पी रहा हूं।”
इंदिरा गांधी ने बोला, “तुम घर पर आ जाओ मैं तुम्हें चाय पिलाऊंगी।”
तब मानेकशॉ ने कहा, “आपकी चाय बेकार होती है। वह कीचड़ की तरह होती है। मुझे नहीं पीनी है आपकी चाय।”
खैर! फिर मानेकशॉ इंदिरा गांधी से मिलने गए। जब वह मिलने गए तब इंदिरा गांधी ने कहा कि, “आजकल तुम्हारी बहुत चर्चा हो रही है कि तुम तख्तापलट कर सकते हो। क्या तुम तख्तापलट करोगे?”
तब मानेकशॉ ने कहा कि, “क्या मैं इतना नकारा हू कि यह चीज करूंगा। मैं आर्मी ऑफिसर हूँ। मुझे पॉलिटिक्स में कोई रस नहीं है।”
दोस्तों! भारत की आर्मी भारत के लोगों के लिए काम करती है। उन्हें पहले से ही यह संस्कार दिए जाते हैं, ट्रेनिंग दी जाती है। आर्मी के पास यह ताकत है कि वह तख्तापलट कर सकती है और बहुत से देशों में यह हुआ भी है। लेकिन भारत की आर्मी ऐसा कभी भी नहीं करेगी।
इसी बात का पॉलिटिशन को डर था कि मानेकशॉ कही तख्तापलट ना कर दे और लोगों की नजर में भी वह चढ़ गए थे। इसीलिए उन्होंने पत्रकार को जो हंसते-हंसते बयान दिया था उस बयान पर इन लोगों को मानेकशॉ के ऊपर बोलने का मौका मिल गया। उनको बहुत उल्टा-सीधा बोला गया। पूरा भारत उन पर चड बैठा। इसके बाद वह फील्ड मार्शल होते हुए भी उनको जो सुविधाएं मिलनी चाहिए वह नहीं मिली। हालांकि उन्हें एक्सटेंशन मिल रहा था, लेकिन मानेकशॉ ने कह दिया कि अब मैं रिटायर ही होना चाहता हूं। उन्होंने 40 साल की अपने देश की सेवा के बाद 15 जनवरी 1973 को रिटायरमेंट ले लिया। लेकिन उन्हें जो सुविधाएं और भत्ते मिलने चाहिए थे वह उन्हें नहीं मिले। फिर धीरे-धीरे सारे पॉलिटिशन और लोगों ने उन्हें भुला दिया।
अंतिम समय में भी मजाकिया स्वभाव (Sam Maneshaw last moments)
हमारे देश के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को जब यह पता चला कि रिटायरमेंट के बाद मानेकशॉ को कोई सुविधा नहीं मिल रही है और उनके साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है, तब वह उनको मिलने गए। उन्हें 1.3 करोड़ का चेक दिया। इस समय मानेकशॉ की उम्र 93 साल की थी और उनकी हालत नाजुक थी। उनका देहांत की होने वाला था ऐसी हालत थी। ऐसी नाजुक हालत में भी जब उन्होने 1.3 करोड़ का चेक देखा तो मजाक में बोल दिया कि, “अरे बाप रे! इतना बड़ा चेक कही बाउंस तो नही हो जाएगा?” गंभीर हालत में भी उनका सेंस ऑफ ह्यूमर बढ़िया काम कर रहा था। चेक देखकर मानेकशॉ बहुत खुश हुए।
अंतिम विधि में कोई नहीं था (Sam Manekshaw death)
रिटायरमेंट के बाद वह दक्षिण भारत में कुनूर (Coonoor) जिले में स्थाई हो गए थे। वहां पर बहुत सारी कंपनी ने उनका कांटेक्ट किया। उन कंपनियों के लिए वह सलाह देते रहे। उन्होंने और उनकी पत्नी शीलू बोडे (Sam Manekshaw Wife) ने भी लोगों के लिए बहुत काम किया। वहां पर उन्होंने मेडिकल क्लिनिक खोले, जहां पर लोगों को मुफ्त में इलाज किया जाता था। इस तरह मानेकशॉ ने अंत तक लोगों की सेवा की।
27 जून 2008 को तमिलनाडु के वेलिंगटन में उनका न्यूमोनिया की वजह से देहांत हो गया। उनके अंतिम शब्द थे, “आई एम ओके” (I am Ok) एक महान इंसान हमें छोड़कर चला गया। लेकिन हमारे लिए शर्म की बात थी, बहुत दुखद बात थी कि जब उनका देहांत हुआ था तब उनकी अंतिम विधि में कोई नहीं आया था। हमारे में से बहुत लोगों को पता भी नहीं होगा कि उनका देहांत कब हुआ था। उनकी अंतिम विधि में कोई नहीं था। कोई VIP व्यक्ति नहीं था, कोई ब्यूरोक्रेट्स, कोई नेता या कोई प्रेसिडेंट उनको देखने नहीं आया था। जिन्होंने अपना सारा जीवन अपने देश के लिए कुर्बान किया था उनके साथ ऐसा व्यवहार हुआ। यह बहुत ही दुखद बात थी।
मानेकशॉ के नेतृत्व के पाठ (Sam Manekshaw leadership lessons)
मानेकशॉ अपने जीवन के द्वारा हमें नेतृत्व के पाठ पढ़ाते हैं कि एक लीडर को कैसा होना चाहिए।
सबसे पहला पाठ है के एक लीडर के पास बहुत बढ़िया एजुकेशन हो ना हो उनके पास कॉमन सेंस होना चाहिए। साथ में शिष्टता होनी चाहिए। यह दोनों बातों से वह किसी भी हालत को संभाल सकता है।
दूसरा पाठ व सिखाते हैं कि लीडर को प्रोफेशनल नॉलेज होनी चाहिए। कोई जन्म से प्रोफेशनल नहीं होता। इसे धीरे-धीरे सीखना पड़ता है और यह पूरी मेहनत से कमाई जाती है।
तीसरा पाठ वे सिखाते हैं कि जब आपने कोई निर्णय ले लिया तब आप उसकी जिम्मेदारी उठाएं। लीडर ने जो सोच समझकर फैसला किया है, फिर उसे पीछे नहीं हटना चाहिए। सफलता मिली तो ठीक है और नहीं मिली तो उसकी पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
चौथा पाठ यह सिखाते हैं कि लीडर को न्याय (justice) करना आना चाहिए। उसे निष्पक्ष (impartial) होना चाहिए। सबको बराबरी का मौका मिलना चाहिए। उनको मौका मिलना चाहिए जो लायक हो।
पांचवा पाठ यह पढ़ाते हैं कि लीडर में नैतिक साहस (moral courage) होनी चाहिए और साथ में हिम्मत होनी चाहिए। अगर कोई बात सही है तो उसे कहने की हिम्मत रखे। सही बात को कहने से मत डरो और सही बात पर ही आगे बढ़े।
छठा महत्व का पाठ यह बताते हैं डर होना चाहिए। डर से डरने से नहीं लेकिन उसका सामना करने से ही उसे हराया जाता है। इसके लिए वह अपनी एक कहानी बताते हैं।
एक बार वह जिस रेजीमेंट में थे वहां पर एक सोहन सिंह नाम का लंबा-चौड़ा सैनिक था। लेकिन मानेकशॉ ने उनका प्रमोशन नहीं किया। क्योंकि इसके लिए सिर्फ शारीरिक शक्ति नहीं चलती, मैनेजमेंट भी आना चाहिए। इसलिए सोहन सिंह का प्रमोशन नहीं हुआ।
तब वहां पर एक सूबेदार था। उसने मानेकशॉ से जाकर कहा कि, “सर! खबर मिली है कि सोहन सिंह आप को गोली मारने वाला है। हमने उसे गिरफ्तार कर लिया है।” मानेकशॉ ने सोहन सिंह को बुलाया और पूछा कि, सोहन सिंह! तुम मुझे गोली मारोगे?” तब सोहन सिंह ने कहा, “नहीं सर। ऐसा कुछ नहीं है।” फिर मानेकशॉ ने गोलियों से भरी बंदूक सोहन सिंह को दी और अपने पर चलाने को कहा। लेकिन सोहन सिंह से गोली चली नहीं। फिर मानेकशॉ ने उनको को एक चांटा मारा और कहा कि जाओ तुम्हारा केस रफा-दफा कर दिया।
शाम को जब मानेकशॉ डिनर कर रहे थे तब फिर वह सूबेदार आया और कहा कि, “सर! सोहन सिंह आज रात को आपको गोली मारेगा।” मानेकशॉ ने फिर से सोहन सिंह को बुलाया और उसे कहा कि, “आज रात मैं सोऊंगा और पूरी रात तुम मेरी पहरेदारी करोगे।” पूरी रात उसने पहरेदारी की। मानेकशॉ को कुछ नहीं हुआ। सुबह सोहन सिंह मानेकशॉ के लिए चाय लेकर आया और पूरे दिन जहां पर वह जाते थे उसके साथ घूमता रहा।
इस बात से आपको क्या सीख मिलती है? सैम मानेकशॉ बताते हैं कि उस समय मुझे बहुत डर लगा था। मेरी हालत बहुत खराब थी। लेकिन मैंने डर दिखाया नहीं और डर का सामना किया। डर का सामना करने से ही अच्छे लीडर ऊभर के आते हैं।
सातवीं बात यह बताते हैं कि लीडर मैं समय की पाबंदी (punctuality) और अनुशासन (discipline) होनी चाहिए। लीडर में यह गुण होगा तो वह गुण पूरी टीम में भी आएंगे और मैनेजमेंट बहुत अच्छी तरह से होगा।
सैम बहादुर नाम कैसे पडा? (How did Sam Bahadur get his name)
सैम मानेकशॉ का निक नेम सैम बहादुर कैसे पड़ा यह किस्सा भी मजेदार है। मानेकशॉ को जब चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ की प्रमोशन मिली तब एक बार उन्होंने आठवीं गोरखा राइफल की एक बटालियन की मुलाकात पर गए। वहां पर उन्होंने जैसे आर्डर देते हैं वैसे पूछा कि, “क्या आप लोग अपनी चीफ का नाम जानते हो?” तो सबने कहा, “हां, जानते हैं।” तब मानेकशॉ ने अपने चीफ का नाम क्या है यह पूछा। तब बटालियन के एक सैनिक ने कहा, “सेम बहादुर।” तब से उन का निक नेम सैम बहादुर पड गया।
जीवन परिचय
| पूरा नाम | सैम होर्मुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ |
| प्रसिद्ध नाम | सैम बहादुर |
| व्यवसाय | आर्मी ऑफीसर भारत के पहले फील्ड मार्शल |
| जन्म | 3 अप्रैल 1914, शुक्रवार |
| जन्म स्थल | अमृतसर, पंजाब |
| ऊंचाई | 5 फुट 9 इंच |
| वजन | करीबन 65 किलो |
| राष्ट्रीयता | भारतीय |
| स्कूल | शेरवुड कॉलेज, नैनीताल |
| कॉलेज | हिंदू सभा कॉलेज, अमृतसर, पंजाब इंडियन मिलिट्री एकेडमी, देहरादून |
| धर्म | पारसी |
| मृत्यु | 27 जून 2008 |
| मृत्यु स्थल | वेलिंगटन, तमिल नाडु |
| उम्र | 94 वर्ष मृत्यु के समय |
| मृत्यु का कारण | न्यूमोनिया |
| माता | हिला |
| पिता | होर्मुसजी मानेकशॉ (डॉक्टर) |
| पत्नी | शीलू बोडे |
| पुत्र | कोई नहीं |
| पुत्री | शेरि बाटलीवाला माजा दारूवाला |
Sam Manekshaw Carrier and War
| Carrier | |
| सर्विस | इंडियन आर्मी |
| रैंक | फील्ड मार्शल |
| सर्विस का समय | 1932-2008 |
| यूनिट | रॉयल स्कॉट 12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट 5वीं गोरखा राइफल्स 8वीं गोरखा राइफल्स 167वीं इन्फेंट्री ब्रिगेड 26वीं इन्फेंट्री डिविजन |
| Sam Manekshaw War | |
| 1939 | विश्वयुद्ध-2 |
| 1947 | भारत पाकिस्तान विभाजन युद्ध |
| 1962 | भारत चीन युद्ध |
| 1965 | भारत पाकिस्तान युद्ध |
| 1971 | भारत पाकिस्तान युद्ध |
Sam Manekshaw Awards
| Awards | |
| 1942 | मिलिट्री क्रॉस |
| 1942 | बर्मा ग्लान्ट्रि अवार्ड |
| 1944 | 9 साल की लंबी सेवा के लिए मेडल |
| 1945 | 1939- 1945 स्टार |
| 1945 | बर्मा स्टार |
| 1945 | वॉर मेडल |
| 1945 | इंडिया सर्विस मेडल |
| 1947 | जनरल सर्विस मेडल |
| 1955 | 20 साल की लंबी सेवा के लिए मेडल |
| 1968 | पद्मभूषण |
| 1971 | पूर्वी स्टार |
| 1971 | पश्चिम स्टार |
| 1972 | पद्म विभूषण |
| 1972 | संग्राम मेडल |






